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Thursday, August 10, 2017

जो खो गया है


   
मनोज पटेल. एक नाम भर नहीं है यह शख्स हमारी ज़िन्दगी में. बहुतों की तरह मैं भी न सिर्फ इनका कायल हूँ बल्कि बेहद शुक्रगुज़ार भी. फेसबुक जैसी आभासी दुनिया से जो मैंने पाया है उसमें सबसे अनमोल है इस शख्स का ब्लॉग – पढ़ते-पढ़ते. और इतने ही अनमोल थे मनोज पटेल. विश्व कविता से परिचित कराने वाले एक संजीदा गाइड थे मनोज. न जाने कितने कवियों को आप ही के मार्फ़त जान पाया. आप नहीं होते तो मेरे लिए दुनिया के बहुत सारे कवि नहीं होते, नहीं होतीं उनकी कवितायें..मैं भी न होता ऐसा जैसा आज हूँ. मेरे जैसे कई अनपढ़-कुपढ़ लोगों को आपने कविता की सही तमीज सिखाई. बेहद प्यार से हर सुबह एक नई कविता हमरे सिराहने छोड़ जाते थे. आँख खुलते ही जैसे एक नई दुनिया खुल जाती थी. उसके मार्फ़त हम कई-कई देशों के लोगों के साथ दुखी हुए, खुश हुए, नाचा किए और अंत में तन कर खड़े हुए उनके साथ. आपने इतने प्यार और अपनेपन से दुनिया भर की भाषा वालों की भावनाएँ हम तक पहुंचाई कि हम उनसे प्यार किए बिना नहीं रह पाए. जिस तरह डूबकर आपने किया अनुवाद  उसी तरह हमें सिखाया थोड़ा और डूबकर प्यार करने का सलीका.
     अभी आठ दिन पहले ही हम सबने आपका फिर से स्वागत किया था और आभार जताया था. हम बेहद खुश थे आपके लौट आने से. फिर से. हमारी उम्मीद के पंख उगने शुरू हो गए थे  हमें क्या पता था कि जो ‘ऐनक’ हमें आप दे रहे थे वो असल में हमारे लिए छोड़े जा रहे थे. कि उसी ऐनक की जरुरत हमें पड़ेगी और हम सचमुच समझ पाएंगे उसकी व्यर्थता को. कि सचमुच समझ पाएंगे कविता की उस  प्रक्रिया को जिससे एक कवि और फिर उसके अनुवादक को गुज़रना पड़ता है. इसका कुछ – कुछ अंदाज़ा तो मुझे उस दिन हो गया था जब पहली और आखिरी बार आपके ब्लॉग पर जा कर राईट क्लिक करने की धृष्टता कर दी थी. संग-संग समझ में आया कि यह एक मिशनरी अनुवादक की लगन और उसकी निष्ठा का अपमान है. उस दिन ग्लानि से भर आया था मन . आपने मेरी हडबडाहट और मेरे जल्दी में होने पर ब्रेक लगाया था . कविता जिस संजीदेपन और ठहरकर परिचय करने की माँग करती है, शायद उसे थोड़ा-थोड़ा समझ पाया था उस दिन. कोई राईट क्लिक नहीं, सेलेक्ट-कॉपी-पेस्ट नहीं. या तो कवितायें पढ़ी जा सकती हैं, उतारी जा सकती हैं लगन से  या फिर उतने ही आग्रह से दूसरों को सुनाई और पढवाईं जा सकती हैं.
     आपसे एक बात पर्सनली मिलकर कहना चाहता था. आपकी वजह से पहली बार मैंने खासी कीमत देकर किसी कवि का संग्रह ख़रीदा था. आज वह कवि मेरा सर्वाधिक पसंदीदा कवि है, हमेशा साथ चलता है. सोचा था कभी आपसे मिलवाऊंगा उसे. आप उसे मेरे साथ देखकर और यह जानकर कि आपकी वजह से हम आज साथ हैं, जरूर प्यार से भर गए होते. बहुतों की तरह मेरी भी बहुत सी बातें अनकही ही रह गईं. एक मेल तक नहीं लिख पाया आपको. ठीक से मुखातिब ही नहीं हो पाया आपसे. एक दावा लेकिन जरूर कर सकता हूँ आप होते तो आपके सामने विनम्रता से कहता कि मुझे जानने वालों में बहुत कम ही करीबी होंगे जो ‘पढ़ते-पढ़ते’ से परिचित नहीं होंगे...जिन्होंने आपके जज्बे को सराहा न होगा.
     अभी तो कितना कुछ होना था. कितने भाषाओं के लोगों के दुःख और नेह से जुड़ना था. बाकी था कितने देशों के कितने अनुभवों से गुजरना. हम आपकी रवानगी के कायल थे मनोज भाई. इसके बावजूद आप जितना कर गए हैं, जो पीछे छोड़े जा रहे हैं, वह भी अपने आप में मुकम्मल है. आप मेरे जैसे कईयों की दुनिया में आये तो अचानक से पर गए नहीं. जा भी नहीं पाएंगे, हम जाने नहीं दे पायेंगे आपको...
आपकी अनुवादित यह आखिरी कविता काश आखिरी कहलाने का हक खो देती...
ऐनक – वेरा पावलोवा
                  (अनुवाद –मनोज पटेल, http://padhte-padhte.blogspot.in/)
ऐनक? किसको पड़ी है उनकी
वे धुंधला जाते हैं चुम्बन के समय
रगड़ खाते हैं पलकों से
गंध और आवाज़ को कर देते हैं मंद
आंसुओं को भटका देते हैं रास्ते से... 
और किसी काम नहीं आते जब आप तलाश रहे होते हैं उसे 
जो खो गया है. 
सलाम
   

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