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Friday, July 1, 2016

संताल हूल

झारखण्ड से प्रकाशित होने वाले अख़बारों को देख कर ऐसा लगा कि संताल हूल के इतिहास से हम अब कमोबेश परिचित हैं. सरकारी विज्ञापन और आयोजनों से भी यही आभास मुझे मिला. झारखण्ड के बाहर और खुद झारखण्ड के संताल परगना क्षेत्र के बाहर के लोग संताल हूल से असल में कितना वास्ता रखते हैं, यह कहना अब भी मुश्किल है. संताल हूल देशी दासता और औपनिवेशिक गुलामी के खिलाफ लड़ी गई पहली सुचिंतित और संगठित लड़ाई थी. मार्क्स ने भी संताल हूल को आमलोगों के नेतृत्व में लड़ा गया औपनिवेशिक भारत का पहला संगठित जन युद्ध कहा था. 30 जून 1855 को झारखण्ड के वर्तमान साहिबगंज जिले के बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह गाँव में हूल का आगाज़ हुआ था. ‘उच्च जाति’ के महाजनों तथा जमींदारों के भीषण अत्याचार के खिलाफ सिदो, कान्हू, चाँद, भैरव और उनकी जुड़वाँ बहन फूलो और झानो के प्रयास से 10000 आदिवासी एवं गैर आदिवासी लोगों ने भोगनाडीह गाँव में इकट्ठा होकर संघर्ष छेड़ने का फैसला किया था. धीरे-धीरे यह जन-युद्ध 60000 लोगों का आन्दोलन बन गया. सिदो मुर्मू , कान्हू मुर्मू, चाँद मुर्मू और भैरव मुर्मू को सबने सर्वसम्मति से अपना नेता स्वीकार किया था. पहले तो ये लड़ाई स्थानीय महाजनों और ज़मींदारों के खिलाफ थी लेकिन धीरे-धीरे यह देशी रियासतों और अंग्रेजों के खिलाफ भी हो गई. 30 जून 1855 से 3 जनवरी 1856 तक चली इस लड़ाई का अग्रेजों ने निर्ममता से दमन किया. पहले मार्शल लॉ लगाया गया, फिर टैंकों और हजारों सैनिकों की मदद से संताल हूल के लड़ाकों का कत्लेआम किया. उनके फौजी बंदूकों और तोपों के सामने संतालों के तीर-धनुष एवं अन्य पारंपरिक हथियार टिक नहीं पाए और लगभग 15000 लोग इसमें मारे गए. सैकड़ों गाँव उजाड़ दिए गए. मारे गए लोग अपने मूल अधिकारों के लिए लड़ते हुए शहीद हुए. वे अपनी जमीन पर अपना हक़ चाहते थे. मेरी और आपकी तरह खुशियों और गीतों से भरी ज़िन्दगी चाहते थे. इसलिए वे शोषण करने वाले महाजनों और जमींदारों के अत्याचार से मुक्ति चाहते थे. अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति चाहते थे. विडंबना है कि भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में संताल हूल को भुला देने के सायास प्रयास हुए. उल्लेख भी किया गया तो महज दो पंक्तियों तक ही सीमित कर दिया गया.
       यद्यपि इनके द्वारा छेड़े गए जनयुद्ध को बहुत बर्बरता से कुचल दिया गया फिर भी उनके ज़ज्बे और बराबरी का समाज बनाने की चाहत को कुचला नहीं जा सका. उस समय कार्यरत एक ब्रिटिश ऑफिसर मेजर जेर्विस ने संताल हूल के दौरान संतालों के कत्लेआम और उनके ज़ज्बे के बारे में लिखा- “यह कोई युद्ध नहीं था; वे समपर्ण करना जानते ही नहीं थे. जब तक उनके नगाड़े बजते थे, उनका पूरा समूह डटा रहता और मारे जाने के लिए तैयार रहते थे. उनके तीरों ने प्रायः हमारे लोगों को मारा इसलिए हमें तब तक फायर करना पड़ता था जब तक कि वे डटे रहते थे. जब उनके नगाड़ों को जब्त कर लिया जाता तो वे कुछ दूर पीछे हट जाते. फिर जैसे ही नगाड़े की आवाज़ गूंजने लगती वे पुनः लड़ने के लिए खड़े हो जाते, जब तक कि हम वापस आकर उन पर बारूद की बौछार नहीं कर देते. इस युद्ध में शामिल ऐसा एक भी सिपाही नहीं था जो अपने आप पर शर्मिंदा नहीं था. (L.S.S O Malley, Bengal District Gazetteers Santal Parganas)
       आज भी अगर उन इलाकों को देखें जहाँ हूल का आगाज़ हुआ तो हम पाएंगे की आजाद भारत और अलग हुए झारखण्ड में भी स्थिति बहुत नहीं बदली है. आज भी वहाँ की अधिकांश जनता औपनिवेशिक काल में ही रह रही हैं. उच्च जाति के महाजनों का आज भी बोलबाला है. प्रशासनिक लापरवाही का तो पूछना ही क्या ? इसलिए हर साल मनाये जाने वाले हूल दिवस को महज एक रस्म अदायगी तक सीमित करना काफी नहीं है. यह समझने एवं बताये जाने की जरूरत है कि संताल हूल कोई हड़बड़ी में फूट पड़ा या स्वतः स्फुट हुआ विद्रोह नहीं था बल्कि एक सुचिंतित और सुसंगठित जनयुद्ध था. तमाम सलाह-मशवरे के बाद ही शोषक और शासकों के खिलाफ एक अंतिम लड़ाई का निर्णय लिया गया. इसमें आम जनता के शत्रुओं की पहचान की गई थी. उन अत्याचारी नीतियों पर विचार किया गया था जिससे यह क्षेत्र महाजनों और जमींदारों से होता हुआ अंग्रेजों की गिरफ्त में जा रहा था. इस जन युद्ध की ही कामयाबी थी कि अंग्रेजों को आगे चल कर संताल परगना टेनेंसी एक्ट बनाने को मजबूर होना पड़ा.      
       यह जन-युद्ध एक दिलचस्प विवाद को सुलझाता भी है. आज एक बहस है कि दलितों और आदिवासियों के बीच कोई एकता हो सकती है या नहीं ? आंबेडकर के रास्ते आदिवासी की मुक्ति संभव है या नहीं ? हूल दिवस यह साबित करता है कि लोगों और उनके नेतृत्व में अपने शत्रु पक्ष को ठीक-ठीक पहचानने की समझ है तो यह संभव है. जिस ‘उच्च जाति’ के महाजनों और जमींदारों के खिलाफ उन्होंने हूल का आह्वान किया था उसमें उस क्षेत्र के दलित और अन्य पिछड़ी जाति के लोग भी शामिल हुए थे. उत्पीड़ित गैर आदिवासी लोगों ने भी सिदो, कान्हू, चाँद और भैरव को अपना नेता स्वीकार किया था. 30 जून को भोगनाडीह की सभा में तमाम आदिवासी प्रतिनिधियों के साथ मंगलू जुलहा, सीरू चमार, सीलू नाई, गनपत ग्वाला, जगरनाथ सिकदर आदि जैसे प्रतिनिधि भी शामिल हुए थे. भारतीय इतिहास का यह पहला संघटित जनयुद्ध हमें आगे बढ़ने का ज़ज्बा भी देता है और रास्ता भी दिखाता है. सवाल है कि हम वर्ग और जाति की अपनी अपनी पताका को लहराने की होड़ से बाहर निकलना चाहते हैं या नहीं ? यह जनयुद्ध बराबरी के संघर्ष का पहला महत्वपूर्ण पाठ है जिसे सायास उपेक्षित किया गया. आज जरूरत संताल हूल की उस विश्वदृष्टि की है जो शोषक और शासक वर्ग तथा उसके हिमायतियों की सही पहचान करवा सके. जनता को उनके संकीर्ण अस्मिता से बाहर निकाल कर संघटित कर सके. एक ऐसा नेतृत्व दे सके जो जनता और जंगल दोनों के प्रति संवेदनशील हो.
हूल जोहर!!!



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