यह प्रश्न इधर
कुछ दिनों से मुझे बहुत परेशान कर रहा है. हो ही सकता है कि मैं गलत सोच रहा हूँ
और इसे यथाशीघ्र ठीक करने की जरुरत है. असल में इसलिए भी यह कहना चाहता
हूँ ताकि साथियों के सही सुझाव से मैं अपनी सोच को ठीक कर सकूँ. यह बात एक बेहद
संजीदा मामले को लेकर है, यह ‘माँ’ को लेकर है, असल में हमारे तत्कालीन भारतीय समाज में
प्रचलित ‘माँ’ के कांसेप्ट को लेकर है.
मतलब कि हम माँ को लेकर इतने भावुक क्यों होते हैं ? क्यों
कोई तर्क इसके आगे काम नहीं करता? (वैसे कई सारे मामले हमारे
माँ के प्रति संजीदा होने को झुठलाते भी हैं लेकिन यह प्रसंग फिर सही). अभी तो
उस ‘माँ’ की ही बात चले जिसके कसम खा
लेने भर से हम मान बैठते हैं कि सच बोला जा रहा है.
ऐसा क्या सिर्फ इसलिए है कि माँ हमें जन्म देती है, इसलिए हम माँ को इतना महत्व देते हैं? जबकि हम जानते
हैं कि महज पैदा करने भर से ही माँ अपने बच्चों के सर्वाधक करीब नहीं होती. यह
कोई जैविक या वैज्ञानिक कारण भी नहीं है माँ के अपने बच्चों से करीब होने का. मार्खेज ने ‘Love in The Time of Cholera’में
बिलकुल सही लिखा कि ‘सिर्फ पैदा करने की वजह से ही माँ अपने बच्चों के
करीब नहीं होतीं, बल्कि उनको पालने और बड़ा करने के क्रम में
उनके बीच जो मित्रता विकसित होती है, उस कारण से अधिकांश
बच्चे अपने माँ के करीब होते हैं’(ध्यान रहे सभी नहीं)...और
इसलिए बड़े होने के क्रम में जिनका ध्यान पिता ज्यादा रखते हैं, वे बच्चे अपने पिता के ज्यादा करीब होते हैं. और इसी तरह से कई बच्चे अपने
नाना, नानी, दादा, दादी या आया के ज्यादा करीब होते हैं. और अगर ऐसा नहीं होता तो अनाथ कहे
जाने वाले बच्चे कभी खुश नहीं हो पाते, वो जिंदगी भर अपने
पैदा करने वाली माँ को ही तलाशते रहते.
तो फिर माँ इतनी महत्वपूर्ण क्यों है? माँ
हमें पल-पोष कर बड़ा करती है, हमारी हर पसंद-नापसंद का ख्याल
रखती है, इसलिये हम माँ को इतना महत्व देते हैं? या हमें समय
पर खाना बना कर खिलाती है, हमारे कपड़ों को, सामानों को जगह पर रखती है? या हर पल हमारे जरूरतों को पूरा करने के लिए
नींद में भी तत्पर रहती है? या खुद परेशान हो कर भी, हमारी
परेशानियों को दूर करती है? या फिर अपनी खुशियों से समझौता करके भी हमारी खुशी में
ही अपनी खुशी को समाहित कर देती है, इसलिए ?
अगर हमारी माँ ऐसी ना होती तो? अगर वो नौकरी
करने जाती या बाहर काम करने जाती होती, तब भी क्या हमारे
पुराने ग्रन्थ, हमारा साहित्य (समकालीन भी) माँ की इतने ही
गुण गाते या माँ की करुणा, दया,
ममता और महानता के गौरव गान से भरे होते ? उसका
जीवन भी अगर तथाकथित मर्यादाओं से न बंधा होता, वो भी अगर
पुरुषों की तरह नियमों से ‘छूट’ लेती
रहतीं, तो क्या तब भी माँ को इसी रूप में हम देखने को
अभ्यस्त होते या हमें सायास अभ्यस्त बनाया जाता ? तो फिर
कुंवारी माँ को वह अधिकार, सम्मान क्यों नहीं हासिल है जो एक
विवाहित माँ को है? जबकि बच्चा तो हर हाल में माँ का ही होता
है. जबकि एक कुंवारी माँ का संघर्ष और समर्पण किसी भी विवाहित
माँ से ज्यादा ही होता है.
मतलब कहीं कोई खोट है. मतलब कि यह भी पुरुष-सत्तात्मक समाज की एक
निर्मिति है. यह भी पुरुषों की सत्ता को मनवाने का एक हथियार है. स्त्रियों को
खुशफहमी में रखने का एक औज़ार है. स्त्रियों की स्वंत्रता को सीमित करने का ही एक
तरीका है. माँ होने में ही सारी महानता को समाहित करके उसके आसपास चहारदीवारी
चुनने का एक प्रयास ही है. घर और बच्चों की सारी जिम्मेदारी को निभाने में
ही स्त्री होने और माँ होने की सार्थकता क्या हमें किसी षड्यंत्र की बू नहीं देता ?
बातें तो मन में बहुत सारी हैं, और सच कहूँ तो बातों से ज्यादा बौखलाहट है( और इसीलिए बातों को एक तारतम्य में नहीं कह पा रहा, असल में यह मेरे सोच के नोट्स ही हैं) कि हम व्यर्थ में ही ‘माँ’ को उसकी ममता के नाम पर इतना महत्व देते हैं. शायद इतनी भावुकता की जरुरत नहीं थी, जिसमें दया और अहसान की ही मात्रा अधिक है; और जिसने स्त्री को गुलाम बनाने का ही काम ज्यादा किया है. फिर कई लोग सवाल करेंगे कि फिर बच्चे की परवरिश कैसे होगी? इसका सीधा सा हल है कि स्त्री-पुरुष को शुरू से इस जिम्मेदारी को मिलकर उठाना चाहिए था. या अब भी ऐसा किया जा सकता है.(और हो भी रहा है ये, लेकिन फिर भी स्त्री माँ होने की महानता का बोझ वहाँ भी ढो रही है) अगर कोई यह पहले से ही मान बैठे कि स्त्री का ही काम घर पर रहना है, तो तर्क की कोई गुन्जाईस ही नहीं बचती.
बातें तो मन में बहुत सारी हैं, और सच कहूँ तो बातों से ज्यादा बौखलाहट है( और इसीलिए बातों को एक तारतम्य में नहीं कह पा रहा, असल में यह मेरे सोच के नोट्स ही हैं) कि हम व्यर्थ में ही ‘माँ’ को उसकी ममता के नाम पर इतना महत्व देते हैं. शायद इतनी भावुकता की जरुरत नहीं थी, जिसमें दया और अहसान की ही मात्रा अधिक है; और जिसने स्त्री को गुलाम बनाने का ही काम ज्यादा किया है. फिर कई लोग सवाल करेंगे कि फिर बच्चे की परवरिश कैसे होगी? इसका सीधा सा हल है कि स्त्री-पुरुष को शुरू से इस जिम्मेदारी को मिलकर उठाना चाहिए था. या अब भी ऐसा किया जा सकता है.(और हो भी रहा है ये, लेकिन फिर भी स्त्री माँ होने की महानता का बोझ वहाँ भी ढो रही है) अगर कोई यह पहले से ही मान बैठे कि स्त्री का ही काम घर पर रहना है, तो तर्क की कोई गुन्जाईस ही नहीं बचती.
मेरे द्वारा अधिकांश पढ़ी गयी कवितायेँ माँ के माँ होने को ही
गौरवान्वित करती हैं, उसकी ममता की महानता को, उसके जीवन की पीड़ा को, उसके बच्चों के लिए किये गए
समर्पण को ही सिर्फ प्रस्तुत करती हैं, बेशक यह भी एक बड़ा
काम है पर...इसके बाद? इसके बाद क्या? कि
वो ऐसे ही पीढ़ी दर पीढ़ी ‘माँ’ बनी
रहे. मुनव्वर राना का एक बहुत प्रसिद्ध शेर माँ को लेकर है और जिसकी कि हम सभी
बहुत चर्चा करते हैं. उसे अभी कोई फेसबुक पर पोस्ट करके देखे, कमेंट्स का ढेर लग जायेगा और बताने की जरुरत नहीं कि किस प्रकार के
कमेंट्स होंगे. बहरहाल शेर शायद कुछ इस प्रकार है—
“किसी के हिस्से में मकां आया किसी के हिस्से में दूकां आयी
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आयी”
क्यों आयी माँ हिस्से में? इसे समझने के लिए ‘माँ’ होने के समाजशास्त्र को समझना होगा. वो अगर सबसे छोटे के हिस्से में नहीं आती तो भी किसी न किसी के हिस्से में जाती ही या जाना ही पड़ता. हमने माँ के पास विकल्प कहाँ छोड़े हैं. किसी ने उससे भी पूछा कि वो कहाँ जाना चाहती है...और शायद पूछें भी तो किसी एक बेटे के हिस्से में जाने की ही बात कहेगी. क्योंकि पेट्रीआर्कल हिजेमनी ने उसकी सोच को सदियों से माँ होने तक ही सीमित कर रखा है.और अगर छोटे बेटे के हिस्से में आयी और यही सबसे बड़ी खुशी की बात है, तो यह खुशी उसे क्यों है? कि माँ का साया उसके साथ होगा, उसके गम को, खुशियों को शेयर करेगी, और...और वह सब करेगी जो एक माँ के लिए पहले से तय है. अगर माँ कोई काम न करे सिर्फ घर में बैठकर अपने बच्चों से प्यार करे, तब भी क्या यह पुरुष-शासित समाज इतनी ही जयकार करेगा/करता माँ की?
इसलिए अब सबसे ज्यादा जरूरी है कि हम माँ को ‘माँ’ के तथाकथित कांसेप्ट से मुक्ति दिलाएं, छुटकारा दे दें उसे, ‘मेरे पास माँ है’ की मानसिकता से उबरें...विश्वास कीजिये ‘माँ’ से मुक्त होकर ही हमें असली माँ मिल पायेगी...तब हम सचमुच अपनी माँ से प्यार कर पाएंगे, उसका असली प्यार पाएंगे, तब उसे और हमारी दया की जरुरत नहीं होगी. तब और भी गर्व होगा किसी माँ की बेटी या किसी माँ का बेटा होने में. याद कीजिये गोर्की की ‘माँ’ को...
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आयी”
क्यों आयी माँ हिस्से में? इसे समझने के लिए ‘माँ’ होने के समाजशास्त्र को समझना होगा. वो अगर सबसे छोटे के हिस्से में नहीं आती तो भी किसी न किसी के हिस्से में जाती ही या जाना ही पड़ता. हमने माँ के पास विकल्प कहाँ छोड़े हैं. किसी ने उससे भी पूछा कि वो कहाँ जाना चाहती है...और शायद पूछें भी तो किसी एक बेटे के हिस्से में जाने की ही बात कहेगी. क्योंकि पेट्रीआर्कल हिजेमनी ने उसकी सोच को सदियों से माँ होने तक ही सीमित कर रखा है.और अगर छोटे बेटे के हिस्से में आयी और यही सबसे बड़ी खुशी की बात है, तो यह खुशी उसे क्यों है? कि माँ का साया उसके साथ होगा, उसके गम को, खुशियों को शेयर करेगी, और...और वह सब करेगी जो एक माँ के लिए पहले से तय है. अगर माँ कोई काम न करे सिर्फ घर में बैठकर अपने बच्चों से प्यार करे, तब भी क्या यह पुरुष-शासित समाज इतनी ही जयकार करेगा/करता माँ की?
इसलिए अब सबसे ज्यादा जरूरी है कि हम माँ को ‘माँ’ के तथाकथित कांसेप्ट से मुक्ति दिलाएं, छुटकारा दे दें उसे, ‘मेरे पास माँ है’ की मानसिकता से उबरें...विश्वास कीजिये ‘माँ’ से मुक्त होकर ही हमें असली माँ मिल पायेगी...तब हम सचमुच अपनी माँ से प्यार कर पाएंगे, उसका असली प्यार पाएंगे, तब उसे और हमारी दया की जरुरत नहीं होगी. तब और भी गर्व होगा किसी माँ की बेटी या किसी माँ का बेटा होने में. याद कीजिये गोर्की की ‘माँ’ को...
1 comment:
क्या बात कही है आपने राजीव जी. पढ़ते के साथ ही आसुंओं की धार निकल पड़ी. कितनी सच्ची बात कही है आपने. हर कोई माँ को अपनी सोच के तराजू में तौलता है पर माँ के दिल में क्या है कोई नहीं सोचता है. जब घर का बंटवारा होता है लोग माँ को ऐसे बाँटते हैं जैसे घर में रखी किसी बेजान वस्तु को बाँट रहे हो, पर माँ से कोई नहीं पूछता कि "माँ तुम क्या चाहती हो?". पर उस वक़्त माँ का दिल शायद यही कह रहा होता है कि काश यह बंटवारा नहीं होता और मैं मेरे सारे बच्चों के साथ रह पाती. माँ कहाँ देख पाती है अपने ही जिस्म के टुकड़े होते.
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