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Sunday, January 2, 2011

कात्यायनी की एक कविता

2010 में निराशा, प्रेम, उदासी और रतजगे की कविता के बारे में कुछ राजनीतिक नोट्स

तमाम सम्मानित अग्रज कवि संक्रमण कर रहे हैं
सामाजिक दिक्-काल से कोस्मोलोजिकल दिक्-
काल में.
कबीर की ऐतिहासिक सीमाओं ने धकेला उन्हें जिस
राह पर
वही अब शरण्य बन रही है, अनिश्चिता
और खतरों से
बचकर कर्तव्य निभाने के लिए.
अपने महासंक्रमण से पहले नहीं भूले हैं कविगण
अपने सभी तमगों, प्रशस्तियों, दोपहर की नींदों
और प्रेमिकाओं के साथ बिताए गए वक्तों को
समेटना साथ ले जाने के लिए.
इक्कीसवीं सदी  के पहले दशक के बीतते-बीतते
द्रविड प्राणायाम से भी कठिन हो गया है
मित्रों के आग्रह के दबाव तले कविता लिखना.
हार्दिक इच्छा है कि आवारा उदास विचारों (या
वैचारिक उदासी?) की
जमा-पूंजी सरेराह चलते-चलते मिले किसी यायावर
को सौंप दी जाय.
...बीसवीं सदी  में बादलों की बेटी से
हवा के प्यार की कथा
धूप  और लहरों की लिपि में जब लिखी जा रही थी
तो मायकोव्स्की की गवाही शायद
यथार्थ को स्वीकार नहीं थी.
तब समय की पार झाँकने सकने वाले
हुमायून पक्षी के हठीले,
खून सने होठों से फूटकर निकलती
भविष्य सूचक सच्चाई को
अविस्मित देख रहा था अलेक्सांद्र ब्लोक.
अब महबूब से पिछली सदी  जैसी
मुहब्बत की मांग करना
चीजों को दुहराने की असंभव-सी कोशिश है,
एक मिथ्याभास को जीने की
बूढ़ी, थकी हुई चाहत है.
हमें बीसवीं शताब्दी की
उंगली पकड़कर नहीं चलना है
न ही महबूब से पहले जैसी मुहब्बत की मांग करती
महबूबा पर पहले जैसी शायरी लिखनी है.
शायरी एक पुरानी खोज है जो ज़िंदगी को समझते हुए
उसे नया करती रही है और खुद भी नई होती रही है.
हमारे समय में ब्रेख्त की व्यंग्यात्मक तिक्तता
प्रश्नाकुल होकर सर के बल खड़ी हो जाती है 
और एन्सेत्सबर्गर की तार्किक उदासी बन जाती है.
हम उसे सीधा करते हैं और सुदीर्घ आख्यानों के
प्रदेश से गुजरकर
उन जटिलताओं तक जाना चाहते हैं
जहाँ नई आशाओं के उत्स हैं.
...हम चीज़ों को समझने की कोशिश करते हैं
और ज्यों ही हम चीज़ों को समझते हैं,
उनसे हमारे रिश्ते बदल जाते हैं.
समझना चीज़ों को बदलने की स्वतः-सतत प्रक्रिया में
एक वांछित सचेतन हस्तक्षेप है, क्या कहें कि
समझना भी बदलना है सूक्ष्म्तर धरातल पर,
या बदलना भी समझने की कोशिश का ही एक हिस्सा है ?
चीजें बहुत बदल चुकीं हैं, पर इतना निश्चय ही नहीं
कि राज्यसत्ता, पूंजी, श्रम, उत्पीडन, रक्त, मृत्यु,
बदलाव
और उम्मीदों के अर्थ बदल चुके हों.
अभिव्यक्ति अपने नए रूपों का संधान करती हुई
कहीं यथार्थ के उद्गम से ही दूर हो गई है
और कहीं जागतिक चिन्तओं की इन्दराजी हो रही है
किसी द्वीप पर.
कहना है कुछ विचारकों का कि हमें अपनी बातों पर
बहुत बल नहीं देना चाहिए, न ही तेज स्वर में
बोलना चाहिए.
संज्ञान का सिद्धांत संभ्रम की देवी के साथ
संभोगरत है इस नयी शताब्दी में
और हम, ठोस तर्कों के साथ यह कहना चाहते हैं
कि शब्द अगर अपने कर्तव्यों से किनाराकशी करने
लगें
तो पियानों पर कोई संगीत-रचना भी
राजनीतिक घोषणा-पत्र की भूमिका निभा सकती है.
हम बताना चाहते हैं कि रक्त का सिर्फ रसायन-
शास्त्र ही नहीं,
एक सौंदर्य-शास्त्र भी होता है और उसके
काव्यात्मक-बिम्बों
का एक ऐतिहासिक आख्यान है जो हमारी स्मृतियों
का हिस्सा है.
हम इस जादू को समझना चाहते है कि
किस तरह मनुष्यता के पदचिन्हों को एक नए समय में
खोज लेते हैं हम, जबकि हमसे पहले उस समय से
किसी का भी गुज़रना नहीं होता है.
यही है शायद कल्पना का यथार्थ.
इस जादू बिना जादू संभव नहीं.
...गुज़री सदी की हारी हुई लड़ाइयों से हमने पाई हैं
कुछ चीज़ें जो अब भी हमारे पास हैं,
पर यह भी सच है कि एक अछोर उदासी भी
हमारे साथ लगातार लगी हुई है, कुछ ऐसी कि
कविता लिखने की पुरातन चाहत हम खोते जा रहे हैं.
शिद्दत के साथ और पूरी रोमानियत के साथ हम
चीज़ों को समझना चाहते थे,जीवन के बहुस्वरीय
पाठ के
सभी अर्थों तक पहुँचने में लगे रहना चाहते थे
आख़िरी सांस तक,
लेकिन एशियाई टुच्चइयों, दैनंदिन क्षुद्रताओं में
व्यर्थ होते रहे.
हम बताना चाहते थे कि जलती रोशनियों के पीछे
सिर्फ तेल ही नहीं,बल्कि जलते हुए ह्रदय भी हुआ
करते हैं.
हम राख के ढेर से बरामद नक्शों के सुबूत देना
चाहते थे.
हम बताना चाहते थे कि आँखों से सपने खुरचने की
असंभव कोशिश से जो तेजाबी खून छलकता है
वह जंगली कुत्तों को पागल कर देते है.
पर हमारी अनसुनी की जाती रही.
मायूस, हम शहर के छोर तक गए चहलकदमी करते
हुए,
जहाँ सामुद्र का उलीचा हुआ पानी निश्चल पड़ा था
सड़ती-सूखती मछलियों और काई-सिवार की गंध
के साथ.
अक्सर वहाँ
खराद के एक बंद कारखाने के सामने बैठा
एक बूढ़ा कम्युनिस्ट अपने गुजर चुके दोस्तों से
बातें कर रहा होता था.
जब हम अपनी बस्तियों की और लौटते थे,
संहार के लिए जिजीविषा की खोज करने वाले
मानव रहित ड्रोन विमान लौट चुके होते थे.
यह वह समय होता था जब सरकारें
अपनी जनता के खिलाफ देश के भीतर जंग लड़
रही होती थीं,
सलवा जुडूम के बाद राज्य का
शीर्ष पुलिस अधिकारी
एक मार्क्सवादी आलोचक की
की स्मृति में स्थापित पुरस्कार
एक मार्क्सवादी और एक गांधीवादी को
दे रहा होता था.
और यही वह समय होता था जब अचानक
टिड्डी दल की तरह
आसमान में छा जाती थीं शक्तिशाली देशों की मुद्राएँ,
और फिर वो जलने लगती थीं और राख की बारिश
होने लगती थी.
...गुज़री सदी में हमने काफी कुछ पाया और फिर
खो दिया.
बावजूद इसके, हम जानते हैं कि स्मृतियों, अनुभव,
और तर्क कीसंचित निधि के सहारे हम बेहतर सपने
देख सकते हैं.
बेहतर परियोजना बना सकते हैं, बेहतर ढंग से
प्यार कर सकते हैं और बेहतर ढंग से
एक बेहतर दुनिया के लिए लड़ सकते हैं.
पर यह जानना हमें राहत नहीं देता फ़िलहाल.
उदास की मीनार से हम देखते हैं निस्सीम जलराशि,
किनारे पर पछाड़ खाती लहरें और स्वीकारते हैं
अकुंठ भाव से इस समय की अपनी निरुपाय निराशा.
जिस सक्रिय विचार कि उपस्थिति मात्र में है
भविष्य का इतना सघन अहसास
कि वर्तमान और  अधिक बोझिल होने लगता है,
हम उस आगमन की प्रतीक्षा करते हैं
और बूढ़े होने से बचे रहते हैं.

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