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Wednesday, May 4, 2011

झारखण्ड के पंचायती राज व्यवस्था में आदिवासी महिलाओं का आना-निर्मला पुतुल


(पिछले दिनों दुमका में उनसे मुलाकात के समय यह लेख मुझे उन्होंने पढ़ने के लिए दिया था, इसे अब मैं उनकी अनुमति के साथ अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर रहा हूँ. ज्ञात हो कि निर्मला पुतुल खुद भी जनवरी में हुए इस पंचायत-चुनाव के मैदान में थीं, पर कुछ 'खास' कारणों से उन्हें जीत नहीं मिल पाई. इस लेख में उन 'खास' कारणों की पड़ताल हो जायेगी. झारखण्ड के पंचायती-चुनाव की चर्चा मुख्य-मीडिया में नहीं के बराबर ही रही, ऐसे में यह लेख इस चुनाव को समझने  और जानने  की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण साबित हो सकता है. ) 

झारखण्ड में बत्तीस वर्षों बाद हुए पंचायत चुनाव में भारी संख्या में आदिवासी महिलाएं नेतृत्व करने के लिए उभर कर सामने आयी हैं. जो महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा सकता है. निस्संदेह यह पचास प्रतिशत आरक्षण व्यवस्था लागू करने की वजह से ही संभव हो पाया.
                  पंचायती राज व्यवस्था में आदिवासी महिलाओं का प्रमुखता से सामने आना हम महिलाओं के लिए गौरव की बात है, परन्तु खतरा इस बात का है कि पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में क्या आज भी हर मोर्चे पर महिलाएं व्यक्तिगत रूप से अपना फैसला स्वयं ले पायेंगी? जिस तरह चुनाव के दौरान पुरुषवादी मानसिकता से जुड़े लोगों ने  खुद सीधे सत्ता में नहीं आ पाने की स्थिति में महिलाओं को प्रायोजित तौर पर सामने लाने की कोशिश की है और जब उनकी कोशिश से महिलाएं चुनाव जीत कर नेतृत्व करने आगे आई हैं तो क्या ये लोग नेतृत्व की डोर उन महिलाओं के हाथों में रहने देंगे या उसकी आड़ में उसके नाम पर अपना शासन चलाएंगे.
                  पंचायत चुनाव में व्यक्तिगत स्तर पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में मेरा जो अनुभव रहा उसके आधार पर लगता है कि जिस तरह से बिचौलियों ने पुरुष-सत्तात्मक व्यवस्था कायम रखने के लिए योग्य महिलाओं की जगह अयोग्य महिलाओं को अधिकाधिक संख्या में अपने राजनीतिक तिकड़म  और कूटनीति की बदौलत पंचायत प्रतिनिधि के रूप में चुनकर सामने लाया है, वह जहाँ एक ओर सुखद है तो दूसरी ओर कहीं ज्यादा दुखद भी है. सुखद इस रूप में कि महिलाएं नेतृत्व में उभरकर आईं लेकिन दुख इस बात का है कि जिन योग्य महिलाओं को आना चाहिए उन्हें आने नहीं दिया गया. इससे हम महिलाओं की एकता भी खंडित होती है लेकिन अफ़सोस उन महिलाओं को इसका आभास तक नहीं हुआ. सच तो यह है कि जिन बिचौलियों की बदौलत हमारे बीच की ये महिलाएं इसमें उभर कर सामने आईं,  उन बिचौलियों ने उन पर कोई एहसान नहीं किया बल्कि पंचायत स्तर पर विकास कार्यों पर अपनी मजबूत पकड़ बनाने और अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए अपने  हाथों की कठपुतली बनाने की मानसिकता से ऐसा किया है. क्योंकि  वे बिचौलिए अच्छी तरह जानते हैं कि योग्य और सशक्त महिलाएं पंचायत का नेतृत्व संभालेंगी तो उनकी बिचौलियागिरी नहीं चलेगी. काश हमारी उन भोली-भाली महिलाओं को यह सब पता चल पाता जो आज अपनी जीत के बाद उनका गुणगान करते नहीं थक रहीं .
                            हमारे बीच से उभरे महिला नेतृत्व को लेकर एक और संकट इस बात का रहा कि जिस पंचायती व्यवस्था को दलगत राजनीति से अलग, एक स्वतंत्र व्यवस्था होने  की बात कही जा रही थी, विडंबना है कि आज वह पूरी तरह राजनीतिक -व्यवस्था के चक्रव्यूह में फंस गई. झारखण्ड के 'धुरंधर' राजनीतिज्ञों ने जिस तरह पंचायती राज-व्यवस्था में उभर कर आये  प्रतिनिधियों को लेकर शतरंज का खेल खेला है वह बहुत ही खतरनाक  है. पंचायत के मुखिया से लेकर जिला परिषद के अध्यक्ष तक में जिस तरह खरीद-फरोख्त हुई उससे इसे  नाम मात्र की पंचायती-राज-व्यवस्था ही कहा जा सकता है. जबकि मुख्य धारा की राजनीतिक व्यवस्था द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से अपनी सत्ता कायम रखने के लिए जिस तरह चुन-चुन कर अयोग्य व्यक्तियों को सभी महत्वपूर्ण पद पर रखा गया उससे झारखण्ड में पंचायती राज-व्यवस्था का भविष्य अंधकारमय हो सकता है.  दुख इस बात का अधिक  है कि इसमें बड़ी संख्या में हमारी आदिवासी महिलाएं भी हैं जो जाने-अनजाने इस चक्रव्यूह में शामिल हैं, यहाँ तक कि कुछ योग्य महिलाएं भी जिनसे बुद्धिजीवियों को बहुत उम्मीदें थीं ; वह भी अपने आप को बचा नहीं पाई.
                            खैर जो भी हो जैसी भी स्थितियां बने फ़िलहाल इस बात को लेकर प्रसन्नता जरुर व्यक्त की जा सकती है. इस व्यवस्था से बड़ी संख्या में आदिवासी महिलाएं सामने आई हैं, जो झारखण्ड में महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक पहला ठोस कदम माना जा सकता है. अपेक्षा है तो अपने तमाम उन  जनप्रतिनिधि  बहनों से जिन्हें जनता ने पहली बार उभर कर सामने आने का मौका दिया है. वे मुट्ठी भर लोगों के स्वार्थ-पूर्ति से बाहर होकर जनहित में अपना फैसला लें. तभी वास्तविक रूप में सशक्त होकर अपने समाज और समुदाय का भला कर पायेंगी.

1 comment:

sajjan singh said...

महिलाएं जागरुकता के अभाव में अपने पतियों के हाथ की कतपुतली ही बनकर रह जाती है। पंचायती चुनवों में प्रतिनिधित्व के लिए जागरुक महिलाओं को सामने आने की आवश्यकता है तभी वे सही मायनों में महिला सशक्तिकरण में सहायक हो सकती है । उनका बड़ी संख्या में राजनीति में आना सकारात्मक संकेत है।

मेरा ब्लॉग- संशयवादी विचारक