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Saturday, November 27, 2010

आखिर क्यों महबूबाएं चाँद जैसी लगती हैं?

जो चाँद स्त्रियों को भाई सामान लगता है,जिस कारण वह बचपन से हमारा मामा हो जाता है,वही चाँद पुरुषों को महबूबा की तरह लगता और दीखता है.मुझे तो लगता है कि यह भी एक पुरुष-प्रधान-पितृसत्तात्मक-समाज की ही निर्मिति है. यह आज के समय के  समाज में भी उतना ही फिट है जितना यह पहले के ज्यादा सामंती समाज(क्योंकि अब भी सामंतवादी मानसिकता से हम कहाँ मुक्त हो पायें हैं) में था.अब चाँद मौजूद तो दिन में भी होता है...पर सूरज की रोशनी के कारण अपनी रोशनी से हमें अपनी और आकृष्ट नहीं कर पाता.ऐसा नहीं है को वो हमें नजर नहीं आता है,पर वह हमें तब न सुन्दर लगता है और न महबूबा सा महसूस होता है. दिन में उसे देख कर न दिल में कोई उमंग उठती है और न ही हम उसाँसे भरते हैं.मतलब इस बात से यह सिद्ध होता है कि महबूबा चाँद की तरह नहीं होती बल्कि रात के चाँद  की तरह होती है.
रात की चाँद रात भर चांदनी बिखेरता है और सुबह होते ही महत्वहीन हो जाता है. इस चाँद की तरह का होने का मतलब है कि इसी तरह स्त्री को भी होना   चाहिए वह चाहे महबूबा हो या पत्नी.जो दिन में दिख कर भी नहीं दिखने जैसी हो, पर रात होते ही अपनी पूरी चांदनी के साथ मौजूद रहे...रात भर रहे और सुबह होते ही चली जाये यानी होकर भी महत्वहीन हो जाये.
कहने का मतलब है कि हमें उन सारे सामाजिक निर्मितियों को फिर से जांचना-परखना होगा,जिसे हम सहज तरीके से मान लेते रहे हैं.जैसे ऐसी  ही एक और  बात जिसका इस्तेमाल पुरुष अपनी प्रेमिका,पत्नी,दोस्त के साथ करता ही रहता है...इस बात को भी सामाजिक मान्यता प्राप्त है,कि "रूठने के बाद स्त्री और हसीन हो जाती है". मैं कभी नहीं समझ पाया कि ऐसा कैसे हो सकता है? कोई दुखी हो,नाराज़ हो और वो आपको सुन्दर दीखता हो. इसका सीधा सा मतलब है कि स्त्रियों को नाराज़ होने का कोई अधिकार नहीं.अगर वे नाराज होती भी हैं तो हों अपनी बाला से. खुद समझे और खुद भुगतें. यह टालने का तरीका  नहीं तो और क्या है? ऐसे ही कई बातें है जो धीरे-धीरे  हमारे अंदर धंसा दी  जाती हैं...और चले आ रहे सामाजिक सिस्टम का हम भी हिस्सा बन जाते हैं. मैं  अपनी बात एक चुटकुले से  खत्म करता हूँ , जो एक शानदार कमेन्ट भी  है -
"टीचर- ए फॉर
स्टूडेंट- एप्पल
टीचर- जोर से बोलो
स्टूडेंट- जय माता दी."

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