- क्यों इतना सोचती है माँ
सिलवट पर मसाला
पीसते हुए माँ
पिताजी के बारे में सोचती है
जो कहीं पैसे कमाने के लिए
कर रहे होंगे बकझक
भाई के बारे में सोचती है
जो स्कूल में किसी से लड़ पड़ा होगा
बहन के बारे में सोचती है
जो लड़कों से ज्यादा बतियाती है
दाल को छौंक देते हुए माँ
नानी के बारे में सोचती है
बुढापे ने जिनकी नरमी छीन ली है
नाना के बारे में सोचती है
जो दवाओं को उदरस्थ करते-करते थक गये हैं
सब्जी में पानी डालकर
चूल्हे पर उसे डबकने के लिए छोड़
पल्लू से माथे का पसीना पोछती हुई
बिछौने पर पेट के बल लेट
हाथ पर ठुड्डी को रखकर
कृशकाय होती जाती माँ
धंसती आखों
सूखते गालों के साथ
पति के बारे में सोचती है
माँ बाबूजी के बारे सोचती है
सोचती हुई...
सपने संजोती...
आप ही आप मुस्कुराती है
(’परिकथा’ नयी दिल्ली मे प्रकाशित)
- जवाब लिखना पड़ रहा है
साथ में ढेर सारे समाचार
आगे लिखा है आपने
दिल्ली से आने वाले अनौपचारिक पत्र
गुम हो जातें हैं पहुचने तक
अक्सर आने वाले फोन की जगह
पत्र का आना बेहद ख़ुशी देता है
पत्र आपका मिलते ही
जवाब लिख रहा हूँ
दिल्ली से मै
सोना कम हो गया है मेरा
घूमना फ़िरना
तबीयत से बातें करना भी
लगता है
किसी बड़े षड्यंत्र में
फांस लिया गया हूँ
नज़र में चढी चकाचौंध की चादर से
नपता-नापता है हर कोई यहाँ
हर किसी के सुख-दुःख का पैमाना
अलग है और विरोधी भी
इसीलिए अहस्तक्षेप प्रिय शब्द है
यहाँ के जीवन में
और आत्मालोचन बुनियादी शर्त
भूख ग़रीबी बेरोज़गारी
बढ़ती कटुता
घटते पेडों की समस्या
का हल निकलने वाले
स्वयं कार में अकेले बैठे होने पर भी
बढ़ते ट्रेफ़िक पर
अफसोस और भड़ास जताने के
आदी हो चुके हैं यहाँ
सच कह रहा हूँ
कूदकर बस में चढ़ने
और कूदकर बस से उतरने के बीच
महसूस ही नहीं कर पाया
दिल्ली को कभी
इसीलिए मैं गावं वापस आना चाहता हूँ
अपने अंदर के गांव को
बचाना चाहता हूँ
('परिकथा' नयी दिल्ली में प्रकाशित )
- टायर
मेरा नानी घर 'डूमरचीर'
जहाँ एक नौकर काम करता है
नाम है उसका 'टायर'
सुबह पॉँच बजे उठता है
गोहाल की सफ़ाई से शुरु होता है
गाय और घोड़े की नाद में
पहले पानी फिर सानी की व्यवस्था करता है
मजबूत कंधो पर भरिया रख कर
घर में पूरे दिन का पानी इकट्ठा कर देता है
बासी भात और एक आम का अंचार
रोज़ नाश्ते में लेना पसंद करता है
बगान की सफाई से क्रम आगे बढ़ता है
गायों और बछडों को दूर
पहाड़ पर छोड़ कर आता है
घोड़े पर बैठ पहाड़ों से
महुआ कोचडा ढो कर लता है
दोपहर के खाने में
भात के साथ दाल पसंद करता है
फिर खेत और खलिहानों में
मुश्तैदी के साथ डट जाता है
पूरा दिन कभी बैठता नहीं
"दिन भर टायर की तरह
घिसता है पर घिसता नहीं"
जब उससे पूछता हूँ -
कैसे हो टायर?
वह संथाली में ही कहता है
'अडी मौज'!मतलब 'बहुत अच्छा'
आप ही बताइए एक आदमी
हर दीन हर पल
'अडी मौज' कैसे हो सकता है?
फिर उससे इतना काम करने पर भी
नहीं थकने का कारण पूछता हूँ-
बड़ी सहजता से
खैनी ठोकता हुआ
मेरे सवाल पर हंसने लगता है
मानों उसकी आँखें पूछ रहीं हों-
'दूसरा उपाय.....'
'(सरयूधारा' शान्तिनिकेतन में प्रकाशित)
- पगडण्डी
मैं संथाल परगना के
इन पहाड़ों-पठारों में नहीं
हर जगह हूँ
जहाँ क़दमों के निशान पड़े
मैं वहीँ जीवित हो उठी
मैं बूट-सूट वालों की नहीं
नंगे पांव चलने वालों की संगी हूँ
उन्ही के बीच पलती बढ़ती हूँ
उन्ही का संबल बनती हूँ
ये जी. टी. रोड
राजमार्ग अंतर्राष्ट्रीय राजमार्ग
ये ट्रेन की पटरियां
मुझे नहीं चिढ़ातीं
बल्कि इनके पास से गुजरकर
कभी पास कभी दूर जाकर
मैं उन्हें ललकार कर
उनकी औकात बताती हूँ
देखो मेरी पहुँच को
जंगल,पर्वत,पठार,मैदान पर
देखो मेरी लहराती बलखाती चाल को
देखो मेरी निर्विघ्न अनंत सीमा को
मैं उन्हें चिढाती उनके पास से गुजरकर
गलियों कीचियों में घुस जाती हूँ
वे स्टैंड,स्टोपेज,स्टेशन पर रूकती हैं
मैं दरवाजे तक जाती हूँ
फिर उनके बाग-बगीचों में
नाचने गाने लगाती हूँ
उनसे कहना चाहती हूँ
तुम चाहे खुद को जितना सभ्य समझ लो
खुद को माडर्न समझ जितना इतरा लो
पर यह तो मानना ही होगा
तुम सभ्यता का ढोंग रचाते हो
मैंने सभ्यता को जनमते देखा है
संस्कृति को अपने रास्ते पलते देखा है
आज भी ये मनु पुत्र
मनु के पांव के निशान ढूंढ़ने
मेरे ही रस्ते जाते हैं
जंगलों,बीहडों,रेगिस्तानों में छिपी सभ्यता
मेरे ही माध्यम से सामने आती है
इस खोज में मैं साथ जाती भी हूँ
पहले से वहां होती भी हूँ
तुमसे कहना चाहती हूँ
"कैसी विचित्र विडंबना है कि
तुम पर से लोग जितना गुज़रते हैं
तुम उजड़ते जाते हो
मुझ पर से लोग जितना आने-जाने लगते हैं
मैं सँवरने लगती हूँ"
मैं देखती हूँ
तुम्हारे लिए
संसद में बैठकर
वे बहस छेड़ते हैं
पहाड़ों तक पहुँचाने के लिए
जंगल,बीहड़.रेगिस्तानों तक
ले जाने के लिए
कागज़ पर तुम्हारा स्वरुप बनाते-बिगाड़ते हैं
मैं पहले से वहां होती हूँ
पर प्रतिद्वंदिता नहीं है तुमसे
मैं निरपेक्ष भाव से तुम्हारी गुलामी देखती हूँ
कि तुम्हारा जीवन-मरण,पालन-पोषण
सब उनके हाथों में है जिन्हें रत्ती भर परवाह नहीं
मैं कुछ कर नहीं सकती पर देखती हूँ
कैसे,वे तुम्हे बनाते ही हैं उजाड़ने के लिए
कैसे,थोड़े में ही तुम्हारी आँखें जीवन के प्रकाश से भर उठती हैं
और कैसे,वे मुझ पर से चलकर मुझे ही भूल जाते हैं
वे भूल रहे हैं
मै सिर्फ धरती पर पड़ी आड़ी- तिरछी रेखा नहीं हूँ
मेरे अमिट निशान उनके हृदय पर हैं
मेरी धुल की सोंधी महक
उनकी नाकों में बसी है
मतलब मुझे जितना मिटाना चाहेंगे
उतना ही प्रभाव छोड़ती जाउंगी
इसिलए तो मैं कहती हूँ
मैं हर जगह हूँ
मन में भी
मन के बाहर भी
ज़मीन पर भी और ज़मीन से कहीं परे भी
क्योंकि मैं सीधी-सादी नहीं
आड़ी-तिरछी पगडण्डी हूँ
और मैं हर जगह हूँ
('काव्यम्'कोलकाता में प्रकाशित)
6 comments:
ghar ke jhine riston ko so so bar udhadte dekha, chupke chupke kar deti hai jane kab turpai amma.
narayan narayan
वाह! वाह! वाह!
प्रकाश बादल की गजलें
अच्छा लिखा है आपने। यूं ही लिखते रहें दीपावली की शुभ कामनाएँ.
आपका स्वागत है निरंतरता की चाहत है . समय निकालें हमारे ब्लॉग पर भी निगाह डालें
बहुत अच्छा लिखा है
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